महावीर सहारण(9354862355)
हजकां
-भाजपा के गठबंधन ने प्रदेश में सहज गति से बह रहे सियासी पारे में एकबारगी तो तूफान सा ला दिया है। गठबंधन राजनीतिक निर्वासन झेल रहे कुलदीप बिश्रोई को प्रदेश की राजनीति की मुख्यधारा में लौटाने में तो सफल होगा साथ ही भाजपा को भी हरियाणा में सही मायनों में अपने पैर जमाने का अवसर प्रदान कर सकता है।
प्रदेश में अब तक कांग्रेस के विरोध में कोई भी दल भाजपा के सहयोग के बिना सरकार का गठन नहीं कर पाया। 1977 में एकजूट जनता पार्टी के रूप में विपक्ष को जोरदार सफलता मिली तो 1982 में लोकदल-भाजपा गठबंधन लगभग सरकार गठन के करीब ही पहुंच गया था लेकिन 1987 में तो 1977 वाला ही इतिहास दोहराया गया था। जब कांग्रेस 5 सीटों पर ही सिमट गई थी। तदोपरांत भाजपा-इनेलो के नेतृत्व में कुछ कड़वाहट फैलनी शुरू हो गई थी इसी के नतीजे में 1991 में कंाग्रेस की जोरदार वापसी हो गई। 1996 में आखिरी समय में भाजपा ने औम प्रकाश चौटाला की बजाए हविपा से समझौता कर के बंसीलाल की ताजपौशी करवा दी। सता की जो मलाई इस दौर में भाजपा कार्यकर्ताओं ने चखी उस से उन की आकांक्षाएं भी बढ़ गई। 1999 में पुन: इनेलो-भाजपा गठबंधन हुआ तथा विधानसभा चुनाव में भाजपा 6 सीटों पर सिमट गई व इनेलो को अपने बलबूते पर बहुमत मिल गया।
यहीं से इनेलो-भाजपा संबधों की ऐसी इबारत लिखी गई जिसका खामियाजा दोनों पक्षों को भुगतना पड़ा तथा भाजपा के केडर का इनेलो से पूर्णतया मोहभंग हो गया। बंसी लाल के शासन काल में सही मायनों में सतासुख भोग चुके भाजपा कार्यकर्ताओं की इनेलो-भाजपा सरकार में वैसी कद्र नहीं थी गठबंधन फिर टूटा। 2004 में कांग्रेस की फिर वासपी हुई तथा मजबूरी वश 2009 में फिर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इनेलो से समझौता किया लेकिन पहली बार इस समझौते से इनेलो को जबरदस्त नुकसान हुआ। भाजपा के केडर ने इनेलो के पक्ष में मतदान करने से पुरी तरह से गुरेज किया। इनेलो-भाजपा अगर यह चुनाव अलग-अलग लड़ते तो इनेलो हिसार-सिरसा-भिवानी संसदीय सीटे आसानी से जीत जाती व इस का फायदा उसे विधानसभा चुनाव में मिलता व इनेलो की 32 सीटों में यकीनन इजाफा होता। इन हालातों में इनेलो का भाजपा से मोहभंग होना स्वाभाविक था। उधर, केंद्र की परिस्थितियां ऐसी बन गई कि भाजपा को उन राज्यों में जहां वह अपने दम पर कांग्रेस का मुकाबला नहीं कर सकती थी किसी क्षैत्रीय दल की बैसाखी की जरूरत थी एनडीए में शामिल रहे नवीन पटनायक (उड़ीसा), चंद्रबाबू नायडू (आंध्रप्रदेश), प्रफुल महंत (असम),श्रीमती जयललिता (तमिलनाडू), ममता बर्नजी (प. बंगाल)एक-एक करके किनारा करते चले गए तथा अब एनडीए में अकालीदल बादल, जनता दल (यू) एवं शिव सेना ही बचे है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने विशेष रणनीति के तहत उमा भारती, जसवंत सिंह जैसे दिग्गज नेताओं का पार्टी में पुर्नप्रवेश सुनिश्चित किया साथ ही राजग को कांग्रेस के मुकाबले प्रत्येक लोकसभा सीट पर मजबूत दावेदार बनाने हेतु गठजोड़ की राजनीति की शुरूआत हरियाणा से कर दी। दूसरी और 5 विधायकों के पाला बदल लेने से कुलदीप बिश्रोई का जनाधार लगातार छीज रहा था ऐसे मौके पर हिसार संसदीय उपचुनाव ने दोनों दलों को चुनावी गठबंधन करने के लिए मजबूर कर दिया तथा प्रदेश की राजनीति में एक ताकतवर कोण के उभरने का मार्ग प्रशस्त हो गया। अब प्रदेश की भावी राजनीतिक तस्वीर काफी कुछ हिसार संसदीय चुनाव नतीजे पर निर्भर हो गई है हजकां-भाजपा कार्यकर्ताओं के चेहरे यह बयां करने के लिए काफी है कि प्रदेश के सियासी रंगमंच पर उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका बन गई है।

प्रदेश में अब तक कांग्रेस के विरोध में कोई भी दल भाजपा के सहयोग के बिना सरकार का गठन नहीं कर पाया। 1977 में एकजूट जनता पार्टी के रूप में विपक्ष को जोरदार सफलता मिली तो 1982 में लोकदल-भाजपा गठबंधन लगभग सरकार गठन के करीब ही पहुंच गया था लेकिन 1987 में तो 1977 वाला ही इतिहास दोहराया गया था। जब कांग्रेस 5 सीटों पर ही सिमट गई थी। तदोपरांत भाजपा-इनेलो के नेतृत्व में कुछ कड़वाहट फैलनी शुरू हो गई थी इसी के नतीजे में 1991 में कंाग्रेस की जोरदार वापसी हो गई। 1996 में आखिरी समय में भाजपा ने औम प्रकाश चौटाला की बजाए हविपा से समझौता कर के बंसीलाल की ताजपौशी करवा दी। सता की जो मलाई इस दौर में भाजपा कार्यकर्ताओं ने चखी उस से उन की आकांक्षाएं भी बढ़ गई। 1999 में पुन: इनेलो-भाजपा गठबंधन हुआ तथा विधानसभा चुनाव में भाजपा 6 सीटों पर सिमट गई व इनेलो को अपने बलबूते पर बहुमत मिल गया।
यहीं से इनेलो-भाजपा संबधों की ऐसी इबारत लिखी गई जिसका खामियाजा दोनों पक्षों को भुगतना पड़ा तथा भाजपा के केडर का इनेलो से पूर्णतया मोहभंग हो गया। बंसी लाल के शासन काल में सही मायनों में सतासुख भोग चुके भाजपा कार्यकर्ताओं की इनेलो-भाजपा सरकार में वैसी कद्र नहीं थी गठबंधन फिर टूटा। 2004 में कांग्रेस की फिर वासपी हुई तथा मजबूरी वश 2009 में फिर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इनेलो से समझौता किया लेकिन पहली बार इस समझौते से इनेलो को जबरदस्त नुकसान हुआ। भाजपा के केडर ने इनेलो के पक्ष में मतदान करने से पुरी तरह से गुरेज किया। इनेलो-भाजपा अगर यह चुनाव अलग-अलग लड़ते तो इनेलो हिसार-सिरसा-भिवानी संसदीय सीटे आसानी से जीत जाती व इस का फायदा उसे विधानसभा चुनाव में मिलता व इनेलो की 32 सीटों में यकीनन इजाफा होता। इन हालातों में इनेलो का भाजपा से मोहभंग होना स्वाभाविक था। उधर, केंद्र की परिस्थितियां ऐसी बन गई कि भाजपा को उन राज्यों में जहां वह अपने दम पर कांग्रेस का मुकाबला नहीं कर सकती थी किसी क्षैत्रीय दल की बैसाखी की जरूरत थी एनडीए में शामिल रहे नवीन पटनायक (उड़ीसा), चंद्रबाबू नायडू (आंध्रप्रदेश), प्रफुल महंत (असम),श्रीमती जयललिता (तमिलनाडू), ममता बर्नजी (प. बंगाल)एक-एक करके किनारा करते चले गए तथा अब एनडीए में अकालीदल बादल, जनता दल (यू) एवं शिव सेना ही बचे है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने विशेष रणनीति के तहत उमा भारती, जसवंत सिंह जैसे दिग्गज नेताओं का पार्टी में पुर्नप्रवेश सुनिश्चित किया साथ ही राजग को कांग्रेस के मुकाबले प्रत्येक लोकसभा सीट पर मजबूत दावेदार बनाने हेतु गठजोड़ की राजनीति की शुरूआत हरियाणा से कर दी। दूसरी और 5 विधायकों के पाला बदल लेने से कुलदीप बिश्रोई का जनाधार लगातार छीज रहा था ऐसे मौके पर हिसार संसदीय उपचुनाव ने दोनों दलों को चुनावी गठबंधन करने के लिए मजबूर कर दिया तथा प्रदेश की राजनीति में एक ताकतवर कोण के उभरने का मार्ग प्रशस्त हो गया। अब प्रदेश की भावी राजनीतिक तस्वीर काफी कुछ हिसार संसदीय चुनाव नतीजे पर निर्भर हो गई है हजकां-भाजपा कार्यकर्ताओं के चेहरे यह बयां करने के लिए काफी है कि प्रदेश के सियासी रंगमंच पर उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका बन गई है।