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शनिवार, 7 नवंबर 2009

महानायक के बालीवुड में 40


मुंबई में आयोजित 11वें मुंबई फिल्म महोत्सव में अमिताभ बच्चन के साथ प्रिटी जिंटा। समारोह में सदी के महानायक अमिताभ को हिंदी सिनेमा में 40 साल पूरा करने के लिए सम्मानित किया गया। महानायक के बालीवुड में 40 साल पूरे महानायक अमिताभ बच्चन के फिल्मी सफर का चालीस साल शनिवार को पूरा हो जाएगा। उनकी पहली फिल्म सात हिंदुस्तानी सात नवंबर 1969 को सिनेमा घरों में रिलीज हुई थी। यह फिल्म कुछ खास नहीं चली। 1971 में उनकी फिल्म आनंद आई, जिसे बाक्स आफिस पर अपार सफलता मिली। 1973 में आई फिल्म जंजीर से उनकी पहचान एंग्री यंग मैन के रूप में बनी और इसके बाद उन्होंने करियर में पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा।

यहां आदमी ही करता है आदमी की


सवारी यह सचमुच पेट की आग बुझाने की विवशता का नजारा है। सूबे के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शुमार बांका स्थित मंदार पर्वत के समीप रोज सजती डोली वालों की दुकान खुद सब कुछ बयां करती है। महज चंद रुपए के लिए ये लोग अपने से दोगुने अथवा तिगुने वजन तक के व्यक्ति को डोली में लादकर मंदार के शिखर यानि हजार फीट की ऊंचाई पर ले जाते हैं। रोटी के लिए इस पुश्तैनी धंधे से जुड़े लोगों को पिछली पीढि़यों की असमय मौत भी नहीं रोक पा रही है। कई बार प्रशासन ने इसपर रोक लगाने की कोशिश की, लेकिन रोटी की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होने से धंधा चलता रहा। दरअसल इस प्रथा की शुरुआत ही मंदार के बाजू में बसे झपनिया गांव में गरीबी के चलते हुई। इस टोले में 50 की उम्र सीमा पार करने वाले विरले ही मिलते हैं। डोली उठाने वालों के पंन्द्रह परिवारों की यह बस्ती है। रोटी के लिए यह इनकी अपनी ईजाद है। इसमें ये लोग तीन से चार के समूह में होते हैं। इनके पास अपना खटोला होता है। ये लोग इच्छुक लोगों को खटोले पर बिठाकर मंदार के शिखर पर ले जाते हैं। इन्हें तीन सौ से पांच सौ रुपये तक मिलते हैं। एक घंटे में ये सवारी के साथ मंदार के शिखर यानि जैन मंदिर पहुंच जाते हैं। फिर सवारी को वापस भी ले आते हैं। पिता की मौत के बाद इस धंधे से पिछले दस वर्षो से जुड़े रमण लैया की मानें तो एक दिन में एक सवारी ले जाते और आते वे पस्त हो जाते हैं। कभी-कभी पैसे के लोभ में वे लोग दो-दो बार भी पहाड़ पर चढ़ते हैं। वे बताते हैं कि उनके दादा और पिता भी यही काम करते थे। इसी धंधे से जुड़े रमथा लैया, धेंगल लैया व मृदु लैया के परिवारों को भी रोटी के लिए खून जलाने के इस पेशे का दंश झेलना पड़ रहा है। अधिकारियों की मानें तो इस धंधे की शुरुआत दरअसल बच्चों को मंदिर तक पहुंचाने के लिए हुई थी, परंतु बाद में ये लोग बड़ों को भी ढोने लगे। बेरोकटोक चलने वाले इस धंधे में शामिल लोग भरी जवानी में ही बूढ़े दिखने लगे हैं, लेकिन वे इस धंधे को छोड़ नहीं सकते हैं। यही एक जरिया है, जिससे घर का चूल्हा जलता है। बताते चलें कि यहां पूजा-अर्चना के लिए झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, दिल्ली सहित अन्य प्रांतों व विदेशों के पर्यटक भी रोजाना जुटते हैं।

कुड़ीमार का कलंक धो रहा पंजाब


कुड़ीमार राज्य के कलंक से जूझ रहे पंजाब के 11 जिलों के 156 गांवों ने करिश्मा कर दिखाया है। इन गांवों में एक साल के दौरान 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या (लिंगानुपात) पहले की तुलना में उल्लेखनीय रूप से ज्यादा दर्ज की गई है। प्रदेश स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने इस साल इन जिलों के चुनिंदा 20 गांवों की पंचायतों को डेढ़-डेढ़ लाख रुपये देकर सम्मानित करने का फैसला किया है। इसके लिए आगामी आठ नवंबर को अमृतसर के डीएवी कालेज में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इसमें प्रदेश की स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री लक्ष्मीकांता चावला पंचायतों को सम्मानित करेंगी। प्रदेश स्वास्थ्य विभाग मुख्यालय के अनुसार, इस साल पंजाब के 11 जिलों में स्त्री-पुरुष लिंग अनुपात में काफी सुधार आया है। इनमें बरनाला के नौ गांव, फतेहगढ़ साहिब के 23, गुरदासपुर के 25, होशियारपुर का एक, लुधियाना के दो, मानसा के सात, मुक्तसर के छह, पटियाला के 41, रूपनगर के 34, शहीद भगत सिंह नगर (नवांशहर) के सात और तरनतारन का एक गांव शामिल है। इस सूची से बठिंडा, अमृतसर, जालंधर जैसे महानगरों और मोहाली सरीखे विकसित जिले का नाम गायब होना चिंताजनक विषय है। स्पष्ट है कि इन जिलों में अभी भी कन्या भ्रूण हत्या का सिलसिला कायम है। स्वास्थ्य विभाग के प्रिंसिपल सचिव सतीश चंद्रा ने कहा कि जिन जिलों में लिंग अनुपात में सुधार नहीं आया हंै वहां विभाग और गंभीरता से प्रयास करेगा। पिछले कुछ समय से स्वास्थ्य विभाग की तरफ से पंजाब के हर गांवों में जन्मे एक साल तक के मेल व फीमेल बच्चों के जन्म का ब्यौरा एकत्र किया जा रहा है। अनुपात निकालने का फार्मूला यह है कि अगर किसी गांव में एक साल में आठ मेल और 20 फीमेल बच्चे पैदा हुए तो लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे 2500 लड़कियां होगा। इस फार्मूले के आधार पर कुछ गांवों में तो एक हजार लड़कों के मुकाबले डेढ़ से दो हजार लड़कियों का अनुपात निकल रहा है। शहीद भगतसिंह नगर का डिंगरियां गांव ऐसा है जहां एक हजार लड़कों के पीछे लड़कियों का अनुपात 2500 दर्ज किया गया है।

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