
अब कहां रहा वह उत्साह! एक समय था जब चुनाव होते ही चारों ओर रौनक छा जाती थी लोकतंत्र का यह महापर्व नेताओं, उनके कार्यकर्ताओं ही नहीं मतदाताओं में भी उत्साह भर देता था। समय के साथ चुनाव का ढंग भी बदला और रंग भी। इसके साथ ही इसकी रौनक भी गायब होती गई और जनसंपर्क व प्रचार के तौर-तरीके भी बदल गए। एक वक्त था जब गली मोहल्ले में नेता के पहंुचने से पहले ढोल-नगाड़ों से उनका स्वागत होता था, लोग उनकी बातें सुनते थे। आज तिकड़मों से भीड़ जुटानी पड़ती है। अप्रैल-मई में हुए लोकसभा चुनावों में कई राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने सोशल नेटवर्किग साइट्स के जरिए मतदाताओं से संपर्क साधा, वहीं विधानसभा चुनाव में भी नेता इस तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं। सीनियर सिटीजन क्लब के प्रधान ओपी मिगलानी कहते हैं कि पहले लोगों में चुनाव के समय शादी सा उत्साह होता था। शहर पार्टी कार्यालयों में मेला सा लगता था और गांवों से लोगों का हुजूम उमड़ता था। संचार के साधनों के अभाव में दूसरे क्षेत्रों में चुनावी माहौल जानने की बड़ी उत्सुकता रहती थी। आजकल पार्टियों के कट्टर समर्थक ही नेताओं को समय देते हैं। आम आदमी में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखती। वरिष्ठ साहित्यकार दर्शनलाल आजाद का कहना है कि भले ही चुनाव प्रचार के तौर तरीके बदल गए हों, चाहे चौपाल की चुनावी सभा के विचार-विमर्श की जगह ब्लाग या एसएमएस ने ले ली हो, लेकिन न तो नेताओं का मिजाज बदला है और न ही समाज के प्रति उनकी भावना। चुनाव प्रचार में प्रयुक्त किए जाने वाले विभिन्न संसाधनों पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है और जनता के पैसे का दुरुपयोग होता है।