
( डॉ सुखपाल सावंत खेडा)- चुनावों का मौसम आते ही रैलियों का दौर आ गया है। इसके साथ ही रैलियों के लिए भीड़ जुटानेवालों की बन आई है। ये लोग सभाओं के लिए बेरोजगारों व ऐसे मौके के लिए सहज उपलब्ध लोगों को वाहनों में भर कर पहुंचाते हैं। जो नेता जितना पैसा खर्च करता है वह अधिक भीड़ जुटा लेता है और बड़े नेताओं तक अपनी बेहतर पकड़ का सुबूत दे पाता है। इस बार रैलियों में भीड़ बढ़ाने वाले अपनी कीमत खुद लगा रहे हैं और उन्होंने रेट भी बढ़ा दिए हैं। पहले जहां पांच हजार रुपये खर्च कर नेता एक बस भर लेते थे, वहीं इस बार दोगुनी राशि खर्च करनी पड़ रही है। जिले में यह धंधा काफी फल-फूल रहा है और बेरोजगारों को बिना काम किए पैसे के साथ ही अच्छा खाना भी मिल रहा है। जनता पर पकड़ मजबूत दिखाने के लिए नेताओं को भीड़ जुटाने में पसीने आते हैं। लेकिन चुनावी सभाओं व रैलियों में जाने के लिए भीड़ का इंतजाम करना अब अधिक मुश्किल नहीं रहा। जब जेब भरी हो तो इस समस्या का भी समाधान आसानी से हो सकता है। यही कारण है कि गांवों व कस्बों में होने वाली चुनावी सभाओं में भी काफी भीड़ उमड़ रही है। यह अलग बात है कि हर सभा में कई चेहरे समान होते हैं। टिकट वितरण से पहले पार्टी हाईकमान को अपनी ताकत का अहसास करवाने के लिए टिकट के दावेदारों को काफी पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। ऐसे नेताजी दिल्ली-चंडीगढ़ के बीच चिकरघन्नी तो बने ही हुए हैं, किसी कार्यक्रम या सभा में आला नेताओं के आने पर शक्तिपरीक्षण से भी नहीं चूकते। अपनी ताकत का अहसास करवाने के लिए भीड़ ही सबसे बढि़या तरीका है। आसपास के शहर में कार्यक्रम होने पर वहां बैनर लगी गाडि़यों का काफिला लेकर जाने का तो फैशन सा बन गया है। इसके लिए बाकायदा गाडि़यों के काफिले के साथ फोटो बनवाकर मीडिया में छपवाई जाती हैं ताकि अगले दिन उसे शीर्ष नेताओं को दिखाकर अपने जनाधार का ढिंढोरा पीटा जा सके। चुनावी मौसम में अचानक बढ़ी मांग के चलते रैली में भाग लेने वाले लोगों ने अपनी कीमत में भारी इजाफा कर दिया है। पहले जहां एक बस (करीब 55-60 व्यक्ति) भरने के लिए पांच से छह हजार रुपये खर्च करने पड़ते थे, वहीं अब इसके लिए दस हजार रुपये तक व्यय करने पड़ रहे हैं। समय के अनुसार रेट में थोड़ा बदलाव आता रहता है। यदि एक ही दिन में दो रैलियां हों तो रेट और बढ़ जाते हैं, लेकिन इंतजाम दोनों के लिए हो जाता है। रैली में ले जाने वाले की हैसियत के अनुसार भी रेट में बदलाव होता रहता है। एक-दो राजनीतिक पार्टियों को छोड़ अन्य पार्टियों ने अभी तक प्रत्याशी घोषित नहीं किए हैं। प्रत्याशियों की घोषणा के साथ ही ही भीड़ बढ़ाने वालों की मांग में जोरदार तेजी आएगी। 25 सितंबर के बाद बड़े-बड़े नेताओं के दौरे शुरू होंगे, जिनकी मौजूदगी में जनता पर अपनी पकड़ दिखाई जाएगी व तब भीड़ जुटानेवालों का धंधा और चमक जाएगा। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा होता है जो अंत समय में जीतने की स्थिति में दिखने वाले प्रत्याशी के पक्ष में झुक जाता है। यही मतदाता जीत-हार में निर्णायक भूमिका भी निभाते हैं। इस भीड़ के माध्यम से ऐसे मतदाताओं को अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास भी होता है।