सांसदों का वेतन 300 प्रतिशत बढ़ा और फिर भी कई सांसद इस बढ़े हुए
वेतन को कम आंक रहे हैं। एक सांसद का वेतन 16 हजार रुपए से बढ़कर
50 हजार होने का प्रस्ताव है, परंतु कई सांसदों का मत है कि उनका वेतन
80,001 रुपया किया जाए, जिसके लिए वह अपनी तुलना केन्द्र सरकार
के सचिव से ऊपर मानते हुए कर रहे हैं। मौजूदा 16 हजार के वेतन के
अतिरिक्त भी एक सांसद पर सरकार का प्रति माह लगभग 4 लाख रुपया
खर्च होता है और न जाने कितनी और सुविधाएं हैं जिसको प्राप्त करने के
लिए किसी सामान्य व्यक्ति को प्रति माह कई लाख रुपए वहन करने पड़
सकते हैं जो कि यह सांसद बिना कुछ दिए प्राप्त करते हैं। देश में महंगाई
अपने चरम पर है। आम आदमी के सामने जीवनयापन करने का बड़ा प्रश्न
बना हुआ है, वहीं इन सांसदों को खाना, रहना, रेल और हवाई सफर करना,
देश की सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाओं सहित अनेक सुविधाओं का लाभ
मु त में मिलता है। फिर भी यह अधिकांश सांसद अधिक वेतन लागू
करवाकर देश पर आर्थिक बोझ बढ़ाने का काम कर रहे हैं। बेहद शर्म और
अफसोस का विषय है कि जहां देश का पैसा सीमाओं पर देश की रक्षा, देश
के भीतर न सलवाद और आतंकवाद रोकने के लिए पानी की तरह बह रहा
है, वहीं देश को दिशा और दशा देने का दम भरने वाले सांसद अपने वेतन
बढ़ाने की मांग का रोना रो रहे हैं। मौजूदा मानसून में देश के कई हिस्सों में
बाढ़ जैसी स्थिति है, जहां पर अधिक से अधिक सुविधाएं अविलंब मुहैया
कराए जाने का तकाजा प्रदेश और देश की सरकारों पर है। वहीं यह सांसद
अपनी तन वाह को बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। एक गीत की यह पंक्ति 'ये
दुनिया अगर मिल भी जाए तो या है...Ó अपने आप में पर्याप्त है जीवन को
समझने के लिए। भावनात्मक विचारधारा से बाहर निकलकर यदि तथ्यों की
बात की जाए तो आज के मौजूदा समय में लोकसभा या राज्यसभा का
चुनाव जीतने में 7 से 10 करोड़ रुपए खर्च होते हैं, जो कि किसी भी स्तर
पर रिकॉर्ड पर दर्ज नहीं होते। अब सहज ही हिसाब लगाया जा सकता है
कि यदि इन सांसदों की तन वाह 80 हजार रुपए मासिक कर दी जाए तो
पांच साल में इन्हें 48 लाख रुपया वेतन के रूप में मिलेगा, जो कि इनके
द्वारा चुनाव के दौरान लगाई गई पूंजी के सामने अंशभर है। बेहद अच्छा
होता कि देश की मौजूदा स्थितियों को ध्यान में रखकर ये सभी सांसद अपना
वेतन देश की प्रगति के लिए एक रुपया लेते और बाकी सरकार के पास देश
हित में छोड़ देते। 63 वर्ष की आजादी के बाद भी हमारी व्यवस्था अपने
निजी स्वार्थों पर टिकी है। खादी को पहनने वाले नेताओं ने स ाा प्राप्ति के
पश्चात खादी के उद्देश्यों को जूते की नोक पर रखकर ठोकरें मारी हैं। यदि
ऐसा न होता तो खादी को पहनने वाले राजनेता जनता और राष्ट्र निर्माण पर
खर्च होने वाली धनराशि को अपनी स्वार्थ सिद्धियों के लिए खर्च न करते।
महंगी-महंगी गाडिय़ों से जब इन नेताओं को आत्मिक संतुष्टि नहीं हुई तो
हेलीकॉह्रश्वटर और चार्टेड हवाई जहाजों को सरकारी पैसे से किराए पर लेने
का चलन पूरे देश में चल पड़ा है। राष्ट्र हित मानो शहीदों की शहादत के
साथ ही समाप्त हो गया, वरना राजनीतिक लोग और उनके दल स ाा प्राप्ति
के लिए वाहवाही लूटने की ऐवज में सरकारी खजानों को चौराहों पर ना
लुटवाते। भारत को प्रगतिशील देश की पंक्ति में पाया जाता है, वहीं हमारा
पड़ोसी चीन वर्तमान में अमेरिका के बाद सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा
है। देश में जब कभी प्रगति पर चर्चा होती है तो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप
में भारत की प्रगति में भारत की विशाल जनसं या को दोषी करार दिया जाता
है। देश के इन ठेकेदारों को ध्यान रखना चाहिए कि चीन में भारत से कहीं
अधिक जनसं या है। फिर भी चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी ताकत बन
गया। चीन से हमें सीखना चाहिए कि आज भी वहां लोग साइकिलों का
प्रयोग करते हैं। देश की प्रगति के दुश्मनों को कड़ी सजा दी जाती है।
मिलावटखोरों और कालाबाजारियों को सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है।
चीन के लिए जो सबसे बड़ा मुद्दा है, वह है उनका राष्ट्र प्रेम। इसके विपरीत
भारत में हम सभी अपने निजी स्वार्थों के फेरे में पड़े रहते हैं। इस सोच को
यदि भारत का हर नागरिक बदल ले तो भारत विश्व में मजबूत स्थान प्राप्त
कर सकता है। जयहिंद
-लेखक --सुरेंदर सिंह हूडा
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