
सवारी यह सचमुच पेट की आग बुझाने की विवशता का नजारा है। सूबे के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शुमार बांका स्थित मंदार पर्वत के समीप रोज सजती डोली वालों की दुकान खुद सब कुछ बयां करती है। महज चंद रुपए के लिए ये लोग अपने से दोगुने अथवा तिगुने वजन तक के व्यक्ति को डोली में लादकर मंदार के शिखर यानि हजार फीट की ऊंचाई पर ले जाते हैं। रोटी के लिए इस पुश्तैनी धंधे से जुड़े लोगों को पिछली पीढि़यों की असमय मौत भी नहीं रोक पा रही है। कई बार प्रशासन ने इसपर रोक लगाने की कोशिश की, लेकिन रोटी की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होने से धंधा चलता रहा। दरअसल इस प्रथा की शुरुआत ही मंदार के बाजू में बसे झपनिया गांव में गरीबी के चलते हुई। इस टोले में 50 की उम्र सीमा पार करने वाले विरले ही मिलते हैं। डोली उठाने वालों के पंन्द्रह परिवारों की यह बस्ती है। रोटी के लिए यह इनकी अपनी ईजाद है। इसमें ये लोग तीन से चार के समूह में होते हैं। इनके पास अपना खटोला होता है। ये लोग इच्छुक लोगों को खटोले पर बिठाकर मंदार के शिखर पर ले जाते हैं। इन्हें तीन सौ से पांच सौ रुपये तक मिलते हैं। एक घंटे में ये सवारी के साथ मंदार के शिखर यानि जैन मंदिर पहुंच जाते हैं। फिर सवारी को वापस भी ले आते हैं। पिता की मौत के बाद इस धंधे से पिछले दस वर्षो से जुड़े रमण लैया की मानें तो एक दिन में एक सवारी ले जाते और आते वे पस्त हो जाते हैं। कभी-कभी पैसे के लोभ में वे लोग दो-दो बार भी पहाड़ पर चढ़ते हैं। वे बताते हैं कि उनके दादा और पिता भी यही काम करते थे। इसी धंधे से जुड़े रमथा लैया, धेंगल लैया व मृदु लैया के परिवारों को भी रोटी के लिए खून जलाने के इस पेशे का दंश झेलना पड़ रहा है। अधिकारियों की मानें तो इस धंधे की शुरुआत दरअसल बच्चों को मंदिर तक पहुंचाने के लिए हुई थी, परंतु बाद में ये लोग बड़ों को भी ढोने लगे। बेरोकटोक चलने वाले इस धंधे में शामिल लोग भरी जवानी में ही बूढ़े दिखने लगे हैं, लेकिन वे इस धंधे को छोड़ नहीं सकते हैं। यही एक जरिया है, जिससे घर का चूल्हा जलता है। बताते चलें कि यहां पूजा-अर्चना के लिए झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, दिल्ली सहित अन्य प्रांतों व विदेशों के पर्यटक भी रोजाना जुटते हैं।
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