डबवाली - लोकसभा चुनाव के बाद क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में जिस प्रकार से विघटन की शुरूआत हुई है, उसको लेकर राष्ट्रीय राजनीतिक दल खुश हैं। जबकि क्षेत्रीय दल मायूस।
पिछले करीब दो दशकों से भारत में क्षेत्रीय दल तीव्र गति से फले-फूले हैं। इन्हीं दलों का सहारा लेकर राष्ट्रीय राजनीतिक दल गठजोड़ों के माध्यम से सत्ता में आते रहे हैं। जिनमें यूपीए और राजग शामिल हैँ। भले ही यूपीए में प्रमुख पार्टी कांग्रेस रही हो और राजग में भाजपा। यहां विशेषकर उल्लेखनीय है कि ये राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय दलों के सहारे सत्ता में तो आई। लेकिन सत्ता में रहते हुए क्षेत्रीय दलों से परेशान भी रहीं। इसी के चलते राष्ट्रीय दलों की इच्छा ठीक इसी प्रकार रही जिस प्रकार से विश्वासघाती की रहती है। इन पार्टियों का एक ही ध्येय रहा कि किसी प्रकार क्षेत्रीय दलों का प्रभाव कम हो और इसके लिए क्षेत्रीय दलों में विघटन जरूरी था।
राष्ट्रीय दलों की इच्छा के चलते बिहार में लालू और पासवान जैसे दिग्गज क्षेत्रीय पार्टियों के चलते लोकसभा चुनाव में धराशायी हो गये और इधर यूपी में मुलायम सिंह यादव की पार्टी पर भी असर पड़ा। हरियाणा में इनेलो और हजकां भी बिखराव की ओर चली गई। समय रहते इनेलो ने तो अपने आपको काफी हद तक बचा लिया। राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय दलों को प्रजातंत्र के लिए खतरनाक मानती आ रही हैँ। उनका हमेशा ही इन दलों पर आरोप रहा है कि ये दल गठजोड़ के बाद ब्लैकमेल पर उतर आते हैं, यहीं नहीं बल्कि इन्हीं दलों के प्रमुख प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न तक देखने लगते हैं।
लेकिन इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों का हमेशा ही नजरिया यह रहा है कि प्रजातंत्र में उनका होना बहुत जरूरी है। अन्यथा राष्ट्रीय दल छोटे दलों को उसी प्रकार से निगल जाएंगे। जिस प्रकार से बड़ी मछली छोटी मछली को निगलती है। क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय पार्टियों पर यह भी आरोप रहा है कि सत्ता में आने के बाद ये पार्टियां उनका शोषण करती रही हैं और उन्हें उनके अधिकार के अनुसार सत्ता में भागीदार न बनाकर उनमें फूट डालने का ही काम करती रही हैं।
चाहे आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी हों। तीन राज्यों में हेोने जा रहे विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल कितने मजबूत होकर निकलते हैं या फिर कमजोर इसी पर ही क्षेत्रीय दलों का भविष्य निर्भर है। लेकिन उनमें चले बिखराव के बहाव ने अवश्य ही उनके भविष्य को खतरे में डाला हुआ है।
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