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गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

खुलेआम उल्लंघन, फिर भी नहीं कोई दंड

ऐसा लगता है कि गलती पर सजा की हकदार सिर्फ जनता ही होती है, सरकारी अफसर नहीं। कम से कम सूचना के अधिकार कानून के मामले में तो यह सौ फीसदी सच है। देशभर में जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) के तौर पर काम कर रहे सरकारी अफसरों की सौ में से 98 गलतियां चुपचाप माफ कर दी जाती हैं। इनके खिलाफ सुनवाई करने वाले सूचना आयुक्त इन्हें सिर्फ अपनी गलती सुधार लेने भर को कहते हैं। यह खुलासा सूचना आयुक्तों के फैसलों के एक व्यापक अध्ययन में हुआ है। अध्ययन के मुताबिक केंद्र और राज्यों के मौजूदा सूचना आयुक्त सरकारी अफसरों से इस कानून का पालन करवा पाने में असरदार साबित नहीं हो रहे। इसकी वजह भी ये आयुक्त खुद ही हैं। दरअसल, लगभग सभी मामलों में ये उल्लंघन करने वालों को कोई सजा ही नहीं देते। जन सूचना अधिकारी के तौर पर काम कर रहा अफसर अगर तीस दिन के अंदर मांगी गई सूचना नहीं देता तो कानूनन उस पर हर दिन की देरी के लिए जुर्माना लगना चाहिए। लेकिन जिन मामलों में सूचना आयुक्त यह मान भी लेते हैं कि आवेदनकर्ता सही है और उसे सूचना उपलब्ध करवाई जानी चाहिए, उनमें भी वो उल्लंघन करने वाले अधिकारी को दंडित नहीं करते। देशभर के सूचना आयुक्तों के कामकाज का यह अध्ययन करवाने वाले पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी और मैगसेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि आयुक्त जब यह मान लेते हैं कि आवेदन करने वाला सही है और उसे सूचना मिलनी चाहिए तो फिर जो गलत है, उसे सजा क्यों नहीं मिलती जबकि कानून इसके लिए साफ हिदायत देता है। आयुक्तों के इस लचर रवैये की वजह से ही उनके फैसलों के बाद भी अफसर उसे गंभीरता से नहीं लेते। हालांकि यह अध्ययन रिटायर सरकारी अफसरों को लेकर आपकी धारणा काफी हद तक बदल सकता है। इसके मुताबिक रिटायर्ड अधिकारी सूचना आयुक्त बनने के बाद जरूरी नहीं कि अफसर बिरादरी को बचाने के लिए ही काम करे। अध्ययन में पता चला है कि सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले आयुक्त भी रिटायर्ड नौकरशाह हैं और सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाले भी इसी बिरादरी के हैं। छह हजार आरटीआई अपीलकर्ताओं से मिले आंकड़ों के मुताबिक जनसंतोष के मामले में अव्वल रहने वाले केरल के आयुक्त पी फजलुद्दीन और केके मिश्रा भी शीर्षस्थ सरकारी अधिकारी रहे हैं और सबसे कमतर साबित होने वाले सीडी आरा और नवीन कुमार भी।

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