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गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

..तो धम्मपद नहीं, गांधी का स्वराज चाहिए


मुझे यदि धम्मपद और गांधी के स्वराज में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो मैं नि:संकोच स्वराज को चुनुंगा। तमाम समस्याओं का हल गांधी के दर्शन में ही है..आवश्यकता है इसे आत्मसात करने की..। यह कहना है बौद्ध संत व दलाईलामा के प्रमुख सहयोगी और तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री सामदोंग रिंपोछे का जो इन दिनों गांधी कथा के प्रचार का जिम्मा उठाए हुए हैं। उनके सरकारी कार्यालय में दैनिक जागरण की उनसे बातचीत तो गांधी कथा पर शुरू हुई, लेकिन संदर्भ स्वराज और अहिंसा के मर्म तक भी पहुंचे। अहिंसा के मूल सिद्धांत पर आधारित बौद्ध धर्म व उसके प्रमुख अनुयायी होने के बावजूद महात्मा गांधी एवं उनके दर्शन के प्रचार की आवश्यकता को स्पष्ट करते हुए उनका कहना है, बुद्ध की अहिंसा धर्म और नीति तक सीमित होकर रह गई। श्रीलंका, कंबोडिया, थाईलैंड एवं बर्मा जैसे बौद्ध राष्ट्र पुलिस और सेना के बिना शासन की कल्पना तक नहीं कर पाए। दूसरी ओर गांधी ने उसे जीवन के हर पहलू, यहां तक कि राजनीति तक में उतार दिया। भारत की आजादी की लड़ाई, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की लड़ाई उन्होंने अहिंसा के बल पर लड़ी और सफल रहे। वही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सेना और पुलिसविहीन राष्ट्र व स्वराज की कल्पना की। रिंपाछे ने बताया कि बुद्ध और महावीर जैसे महात्माओं के कारण भारत समेत पूरे विश्व में करीब ढाई हजार साल से अहिंसा का उपदेश सुनने को मिल रहा है, लेकिन दुर्भाग्यवश आम लोगों के दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं बन पाया। इसे सिर्फ आत्मिक उत्थान व धर्म का तरीका भर माना गया है। इसे दैनिक जीवन में उतारने और इसके माध्यम से अपनी बात मनवाने की ताकत बनाने का श्रेय पूरी तरह से महात्मा गांधी को जाता है। यह दीगर है कि आजादी के बाद उनके सिद्धांतों पर अमल नहीं हो पाया, लेकिन मेरा आज भी दृढ़ विश्वास है कि बिना सेना, पुलिस एवं बल प्रयोग के शासन संभव है। दलाईलामा के सहयोगी रिंपोछे का मानना है कि गांधी के स्वराज को ईमानदारी से अपनाएं तो विश्वव्यापी आतंकवाद, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी एवं मंदी जैसी समस्या का हल इसी में है। यदि पूरा मानव समाज अहिंसा के सिद्धांत का दृढ़ता से पालन करे और अपनी समस्याओं का हल अहिंसक तरीके से तलाश करे तो स्वत: ही हिंसा, आतंकवाद और लड़ाई-झगड़े खत्म हो जाएंगे। इसी तरह ग्राम स्वराज के सिद्धांत पर चलते हुए वस्तुओं का उतना ही ग्रामीण स्तर पर उत्पादन और संग्रह हो जितनी आवश्यकता है तो मंदी नहीं रहेगी। मौजूदा स्थिति को घातक बताते हुए उनका कहना है कि यह वैश्वीकरण और मशीनीकरण का दौर है। कारखानों में बेतहाशा उत्पादन, अधिक से अधिक वस्तुओं का संग्रह, मुनाफाखोरी, और अपनी आवश्यकता देखे बिना सिर्फ दूसरों को देखकर अस्त्र-शस्त्र समेत तमाम विलासता के सामान खरीदने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हर आदमी, समाज और राष्ट्र चाहे-अनचाहे इस दौड़ में है। इससे उबरने का एकमात्र रास्ता संस्कारों में परिवर्तन है जो गांधी दर्शन में है।

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