
इलाहाबाद- ये तो तय है कि ठंडी के बाद गर्मी आयेगी लेकिन माधुरी आयेगी कि नहीं इसमें संशय है। माधुरी गर्मी का वह फल है जिसको लोग बड़े ही चाव से खाना पसंद करते हैं। तरबूज की माधुरी नामक प्रजाति के बारे में जो लोग जानते हैं उनके मुंह में अगर अभी पानी आ गया हो तो बड़ी बात नहीं लेकिन इस फल के बारे में एक विडम्बना जुड़ गयी है। इलाहाबाद, कौशाम्बी और फतेहपुर जिलों में बड़े पैमाने पर पैदा होने वाले इस फसल पर सूखे की मार पड़ गयी है। अबकी तरबूज सोना जैसा हो जाये तो ताज्जुब नहीं। दरअसल तरबूज और खरबूज का उत्पादन नदियों के कछार में होता है। बारिश कम होने की वजह से इस वर्ष गंगा-यमुना में बाढ़ नहीं आयी। इसके कारण पुरानी रेत बह नहीं सकी और बाढ़ के साथ आने वाली उर्वरा बलुई मिट्टी रेत पर नहीं पहुंची। इसी वजह से यहां के तरबूज और खरबूज के उत्पादक किसान सहमे हुए हैं। उनका मानना है कि ऐसी स्थिति में उत्पादन तो प्रभावित होगा ही कहीं लागत भी न डूब जाये। इलाहाबाद, कौशाम्बी, फतेहपुर और मिर्जापुर आदि जिलों में गंगा-यमुना की रेती पर 15 हजार हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल में तरबूज और खरबूज की अच्छी पैदावार है। हर साल नवंबर के अंतिम और दिसंबर के पहले सप्ताह से बुवाई शुरू हो जाती है और मार्च तक फल बाजार में पहुंच जाते हैं। दो महीने तक बाजार पर इनका कब्जा रहता है। अपनी मिठास और गुण के कारण यहां के तरबूज और खरबूज दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलुरू, भोपाल आदि शहरों के अलावा विदेशों में धूम मचाते हैं। खाड़ी देशों में तो इनकी खूब मांग रहती है। इलाहाबाद के फाफामऊ, गद्दोपुर, भोरहूं, सुमेरी का पूरा, मातादीन का पूरा, मलाक हरहर, रंगपुरा, जैतवार डीह, बहमलपुर सहित दर्जनों गांवों के किसान बताते हैं कि बिना उर्वरा बलुई मिट्टी के तरबूज का उत्पादन मुश्किल है। कई बार ऐसा हो भी चुका है। तरबूज किसान रामकैलाश, विजय बहादुर, रामजियावन, भुल्लर यादव का कहना है कि इस बार तो बालू के रेत भी नहीं डूब सके हैं। इस कारण रेत पर पुराना और नीरस बालू बचा है। इसीलिए हम लोग तरबूज की खेती से कतरा रहे हैं। स्थानीय स्तर पर तरबूज और खरबूज की पैदावार न होने अथवा कम होने पर एक तो इसके दाम तेजी से बढ़ेंगे और स्वाद भी बदल जाने की बात कही जा रही है। हालांकि यहां के मार्केट में उड़ीसा और कई अन्य जगहों से तरबूज की आमद होती है लेकिन उनमें वह बात नहीं होती जो यहां के तरबूज की प्रजाति हिरमंजी, कोहिनूर और माधुरी में होती है। हालांकि उड़ीसा से आने वाले टांडा नामक तरबूज की प्रजाति अच्छी मानी जाती है। कछार में उर्वरा शक्ति की कमी को कृषि वैज्ञानिक भी सही मान रहे हैं। इस बाबत डॉ.आनंद कहते हैं कि गंगा के पानी में हिमालय की पहाडि़यों से अब भी तमाम तरह की उर्वरा शक्तियां मिट्टी में आती हैं। बारिश के दौरान खेतों की उर्वर मिट्टी भी बह कर नदी में आती है जो रेत पर जम जाती है। तरबूज व्यापारी रमेश खन्ना, हेमंत सोनकर, बब्बू पंडित, ननकेश निषाद कहते हैं कि इस बार तरबूज के महंगे होने के आसार से धंधा भी प्रभावित होगा।
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