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गुरुवार, 19 नवंबर 2009

अमेरिका-चीन की जुगलबंदी से भारत असहज


इसे चीन के बढ़ते दबदबे पर वाशिंगटन की मुहर कहिए या एशिया में संतुलन की सियासत का नया दांव लेकिन बीजिंग की मेहमाननवाजी से गदगद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस तरह चीन को दक्षिण एशिया की क्लास में मॉनीटर बनाने की कोशिश की है, उससे नई दिल्ली की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। भारत ने इस्लामाबाद के साथ रिश्तों में किसी की मध्यस्थता को सिरे से नकार दिया है, लेकिन मुद्दा इस माह होने वाली ओबामा-मनमोहन की मुलाकात तक भी जरूर पहुंचेगा। ओबामा के बीजिंग दौरे के बाद आए साझा बयान से उपजे इस विचार को सिरे से खारिज करते हुए भारत ने कहा है कि नई दिल्ली और इस्लामाबाद के संबंधों का हल केवल द्विपक्षीय वार्ता से संभव है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विष्णु प्रकाश ने कहा कि भारत शिमला समझौते के तहत आपसी वार्ता के सहारे पाक के साथ सभी लंबित मामलों के शांतिपूर्ण हल के लिए प्रतिबद्ध है। किसी तीसरे पक्ष की भूमिका की न तो कोई संभावना है और न ही जरूरत। वहीं पाक को चीन से मिले नाभिकीय तोहफों और सामरिक मदद की खबरों के बीच भारत ने वाशिंगटन को यह भी याद दिलाया कि इस्लामाबाद के साथ बातचीत आतंक और आतंकवाद के खतरों से मुक्त माहौल में ही संभव है। भारत-पाक के बीच बीजिंग व वाशिंगटन की मध्यस्थता का विचार कोई नया नहीं है। अमेरिका और चीन की ओर से आए ताजा साझा बयान में यह कहा गया है कि वाशिंगटन और बीजिंग भारत-पाक संबंध बेहतर बनाने और दक्षिण एशिया में शांति व स्थायित्व के लिए मिल कर प्रयास करेंगे। कूटनीतिक गलियारों में माना जा रहा है कि इस नए पैंतरे के पीछे इस्लामाबाद पर बीजिंग का दबदबा इस्तेमाल करने की नीति है। हालांकि भारत के एक पूर्व विदेश सचिव भी मानते हैं कि पाकिस्तान तक संदेश पहुंचाने के लिए कई बार चीन का प्रभाव काफी कारगर तरीका साबित हुआ है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत-पाक संबंधों की पटरी पर किसी तीसरी गाड़ी को चलने की इजाजत नहीं दी जा सकती। जाहिर तौर पर नई दिल्ली की नजर एशिया के शक्ति संतुलन पर है। खास कर ऐसे में जबकि बीजिंग और नई दिल्ली के बीच भी सीमा विवाद सहित कई मुद्दे सुलग रहे हैं। भारत किसी हाल में नहीं चाहेगा कि दक्षिण एशिया में चीन की कोई चौधराहट स्थापित हो।

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