अश्वनी कुमार सम्पादक पंजाब केसरी
मुझे अभी तक वह नजारा याद है जब श्री राजीव गांधी की तमिलनाडु में हत्या के बाद दिल्ली में उनके अन्तिम संस्कार के लिए पार्थिव शरीर अन्तिम यात्रा के लिए राजघाट के समीप ले जाया जा रहा था और उनकी शवयात्रा में शामिल भीड़ से ये नारे लगवाये जा रहे थे कि 'राजीव के हत्यारों को-जूते मारो सालों कोÓ बिना शक यह कांग्रेसी भीड़ ही थी जो ऐसे नारे लगा रही थी। यह किसी भी राजनीतिक दल के दिमागी दिवालियेपन की पराकाष्ठा का जीता-जागता सबूत था और किसी एक व्यक्ति के क्रूर कारनामे को उसके पूरे वृहद समाज से जोडऩे की नाकाम कोशिश थी जो इस देश के लोगों के इंसानियत के जज्बे की वजह से सिरे नहीं चढ़ सकी। यह अकारण नहीं था 1योंकि १९८४ में कांग्रेस जिस अभूतपूर्व बहुमत (लोकसभा में ४१४ सीटें) लेकर स8ाा पर काबिज हुई थी उसके पीछे विशुद्ध रूप से घृणा की राजनीति थी और यह विद्वेष व घृणा सिख समाज के प्रति पैदा की गई थी। श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या इसी समाज के एक व्यक्ति द्वारा किये जाने के बाद जिस प्रकार इस समाज के खिलाफ स8ाा नियोजित आतंक पैदा किया गया और देश के विभिन्न हिस्सों में बेदर्दी और चंगेजी तरीके से सिखों को निशाना बनाया गया उसका प्रमाण हरियाणा के रेवाड़ी जिले का वह चिल्लड़ गांव है जहां सिख परिवारों का नामो-निशान मिटा दिया गया। अब २७ साल बाद इस कांड की गूंज यदि संसद में उठती है तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इतना समय बीत जाने के बाद और राज्य में विभिन्न दलों की सरकारें आने-जाने के बावजूद ऐसा कृत्य करने वालों को कानून की पकड़ में लाने की इच्छा शक्ति किसी में नहीं है। इस मामले की एफआईआर दर्ज होने के बावजूद यदि प्रशासनतन्त्र हत्यारों का पता नहीं लगा पाता है और जिन लोगों पर जुल्म हुए हैं उनके बचे-खुचे परिवार के लोगों को यदि हरियाणा पुलिस गुमशुदा की श्रेणी में डाल कर 'केसÓ को बन्द कर देती है तो इसका सीधा अर्थ यही है कि हरियाणा में १९८४ के बाद अभी तक जितनी भी राज्य सरकारें आयी हैं वे कोई सरकार नहीं बल्कि अराजक तत्वों का समूह थीं। सवाल यह नहीं है कि २७ साल बाद यह मामला संसद में उठा है बल्कि सवाल यह है कि २७ सालों तक कानून के रखवाले हत्यारों का संरक्षण करते रहे हैं? सवाल यह है कि 1या राजनीतिक व्यवस्था ऐसे कृत्य करने वालों को आश्वस्त करने का इन्तजाम करती है? 1या राजनीतिक दल स8ाा प्राप्त करने के लिए पूरा सामाजिक भाईचारा तोडऩे की नीतियों को अपनी राजनीतिक रणनीति बना बैठे हैं? निश्चित रूप से यह राष्ट्रविरोधी कृत्य है। न भारत का संविधान इसकी इजाजत देता है और न भारतीय संस्कृति।
मुझे यह लिखने में भी जरा भी गुरेज नहीं है कि गोधरा कांड के बाद गुजरात में जो दानवी तांडव हुआ उसके पीछे भी यही मानसिकता काम कर रही थी। स8ाा पर काबिज होने का यह विध्वंस भरा रास्ता राजनीतिज्ञों के लिए सरल हो सकता है मगर इस देश के लिए विनाशकारी ही साबित हुआ है। इस देश के दो टुकड़े इसी मानसिकता के चलते १९४७ में हुए थे मगर कांग्रेस ने अपने सारे पुण्यों को उसी दिन गन्दे नाले में बहा दिया था जिस दिन १९८४ में सिख विरोधी दंगे भड़काये गये थे और उस घृणा से उपजी वोटों की लहर पर बैठ कर इसने लोकसभा में ४१४ स्थान प्राप्त किये थे। ये दंगे दूसरे राजनीतिक दलों के लिए स8ाा पर आसानी से क4जा करने के लिए नजीर बन गये और शासन प्रायोजित हिंसा का नमूना बन गये मगर विचारशून्य स8ाा का 1या हश्र होता है इसका उदाहरण भी स्वयं कांग्रेस पार्टी ही है जो १९८४ के बाद से अभी तक किसी भी चुनाव में अपने बूते पर लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकी है। कांग्रेस के 'होनहारÓ युवा अल6बरदारों में अगर इसके बावजूद इतनी हि6मत है कि वे सीना ठोक कर यह कहें कि अगर १९९२ में राजीव गांधी प्रधानमन्त्री होते तो अयोध्या में बाबरी ढांचा नहीं गिर सकता था, तो सिवाय सिर पीटने के और 1या किया जा सकता है। जब उन्हीं के प्रधानमन्त्री रहते दिल्ली समेत पूरे देश में जीते-जागते हजारों सिखों का कत्ल किया गया हो तो ईंट-गारे से बनी इमारतों की सुरक्षा का ढिंढोरा पीटना 1या उस कहावत की याद नहीं दिलाता है जो इस देश के गांवों में आज भी प्रचलित है 'जिन्दे की बात न पूछे-मरे को धर-धर पीटे।Ó मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि सिख दंगे देश के राजनीतिक चरित्र के पतन का शिलालेख हैं। इसके बाद ही इस देश में समाज को और तोडऩे की राजनीति पैदा हुई और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे मौसमी विचार शून्य राजनीतिज्ञ की हि6मत मंडल आयोग के पर्दे में समाज को भीतर से खोखला करने की हुई। इसलिए असली मुद्दा यह है कि इस देश के सभी राजनीतिक दल केवल चिल्लड़ गांव के दोषियों को सजा दिलाने की मुहिम न छेड़ें बल्कि उस मानसिकता से बाहर आयें जो ऐसे कृत्य कराती है। बेशक इसमें सबसे बड़ी जि6मेदारी कांग्रेस पार्टी की है 1योंकि उसी ने इस देश में शासन प्रायोजित आतंक की शुरूआत की है। अब मुझे प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह बताएं कि इस देश में न1सलवाद से भी बड़ी समस्या 1या ऐसी राजनीतिक मानसिकता की नहीं है? यह तो दुगना धोखा और आतंकवाद है 1योंकि स्वयं स8ाा में बैठे व्यक्ति ही लोगों को आपस में एक-दूसरे के खून का प्यासा बनाते हैं और शासन आंखें बन्द करके सब कुछ देखता है। चिल्लर गांव की यही आत्मकथा है मगर इस मुल्क के लोग 1या करें जिनकी किस्मत में ऐसे रहनुमा लिख दिये गये हैं जो रहबरी करके ही हुक्काम बने।
मुझे अभी तक वह नजारा याद है जब श्री राजीव गांधी की तमिलनाडु में हत्या के बाद दिल्ली में उनके अन्तिम संस्कार के लिए पार्थिव शरीर अन्तिम यात्रा के लिए राजघाट के समीप ले जाया जा रहा था और उनकी शवयात्रा में शामिल भीड़ से ये नारे लगवाये जा रहे थे कि 'राजीव के हत्यारों को-जूते मारो सालों कोÓ बिना शक यह कांग्रेसी भीड़ ही थी जो ऐसे नारे लगा रही थी। यह किसी भी राजनीतिक दल के दिमागी दिवालियेपन की पराकाष्ठा का जीता-जागता सबूत था और किसी एक व्यक्ति के क्रूर कारनामे को उसके पूरे वृहद समाज से जोडऩे की नाकाम कोशिश थी जो इस देश के लोगों के इंसानियत के जज्बे की वजह से सिरे नहीं चढ़ सकी। यह अकारण नहीं था 1योंकि १९८४ में कांग्रेस जिस अभूतपूर्व बहुमत (लोकसभा में ४१४ सीटें) लेकर स8ाा पर काबिज हुई थी उसके पीछे विशुद्ध रूप से घृणा की राजनीति थी और यह विद्वेष व घृणा सिख समाज के प्रति पैदा की गई थी। श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या इसी समाज के एक व्यक्ति द्वारा किये जाने के बाद जिस प्रकार इस समाज के खिलाफ स8ाा नियोजित आतंक पैदा किया गया और देश के विभिन्न हिस्सों में बेदर्दी और चंगेजी तरीके से सिखों को निशाना बनाया गया उसका प्रमाण हरियाणा के रेवाड़ी जिले का वह चिल्लड़ गांव है जहां सिख परिवारों का नामो-निशान मिटा दिया गया। अब २७ साल बाद इस कांड की गूंज यदि संसद में उठती है तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इतना समय बीत जाने के बाद और राज्य में विभिन्न दलों की सरकारें आने-जाने के बावजूद ऐसा कृत्य करने वालों को कानून की पकड़ में लाने की इच्छा शक्ति किसी में नहीं है। इस मामले की एफआईआर दर्ज होने के बावजूद यदि प्रशासनतन्त्र हत्यारों का पता नहीं लगा पाता है और जिन लोगों पर जुल्म हुए हैं उनके बचे-खुचे परिवार के लोगों को यदि हरियाणा पुलिस गुमशुदा की श्रेणी में डाल कर 'केसÓ को बन्द कर देती है तो इसका सीधा अर्थ यही है कि हरियाणा में १९८४ के बाद अभी तक जितनी भी राज्य सरकारें आयी हैं वे कोई सरकार नहीं बल्कि अराजक तत्वों का समूह थीं। सवाल यह नहीं है कि २७ साल बाद यह मामला संसद में उठा है बल्कि सवाल यह है कि २७ सालों तक कानून के रखवाले हत्यारों का संरक्षण करते रहे हैं? सवाल यह है कि 1या राजनीतिक व्यवस्था ऐसे कृत्य करने वालों को आश्वस्त करने का इन्तजाम करती है? 1या राजनीतिक दल स8ाा प्राप्त करने के लिए पूरा सामाजिक भाईचारा तोडऩे की नीतियों को अपनी राजनीतिक रणनीति बना बैठे हैं? निश्चित रूप से यह राष्ट्रविरोधी कृत्य है। न भारत का संविधान इसकी इजाजत देता है और न भारतीय संस्कृति।
मुझे यह लिखने में भी जरा भी गुरेज नहीं है कि गोधरा कांड के बाद गुजरात में जो दानवी तांडव हुआ उसके पीछे भी यही मानसिकता काम कर रही थी। स8ाा पर काबिज होने का यह विध्वंस भरा रास्ता राजनीतिज्ञों के लिए सरल हो सकता है मगर इस देश के लिए विनाशकारी ही साबित हुआ है। इस देश के दो टुकड़े इसी मानसिकता के चलते १९४७ में हुए थे मगर कांग्रेस ने अपने सारे पुण्यों को उसी दिन गन्दे नाले में बहा दिया था जिस दिन १९८४ में सिख विरोधी दंगे भड़काये गये थे और उस घृणा से उपजी वोटों की लहर पर बैठ कर इसने लोकसभा में ४१४ स्थान प्राप्त किये थे। ये दंगे दूसरे राजनीतिक दलों के लिए स8ाा पर आसानी से क4जा करने के लिए नजीर बन गये और शासन प्रायोजित हिंसा का नमूना बन गये मगर विचारशून्य स8ाा का 1या हश्र होता है इसका उदाहरण भी स्वयं कांग्रेस पार्टी ही है जो १९८४ के बाद से अभी तक किसी भी चुनाव में अपने बूते पर लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकी है। कांग्रेस के 'होनहारÓ युवा अल6बरदारों में अगर इसके बावजूद इतनी हि6मत है कि वे सीना ठोक कर यह कहें कि अगर १९९२ में राजीव गांधी प्रधानमन्त्री होते तो अयोध्या में बाबरी ढांचा नहीं गिर सकता था, तो सिवाय सिर पीटने के और 1या किया जा सकता है। जब उन्हीं के प्रधानमन्त्री रहते दिल्ली समेत पूरे देश में जीते-जागते हजारों सिखों का कत्ल किया गया हो तो ईंट-गारे से बनी इमारतों की सुरक्षा का ढिंढोरा पीटना 1या उस कहावत की याद नहीं दिलाता है जो इस देश के गांवों में आज भी प्रचलित है 'जिन्दे की बात न पूछे-मरे को धर-धर पीटे।Ó मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि सिख दंगे देश के राजनीतिक चरित्र के पतन का शिलालेख हैं। इसके बाद ही इस देश में समाज को और तोडऩे की राजनीति पैदा हुई और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे मौसमी विचार शून्य राजनीतिज्ञ की हि6मत मंडल आयोग के पर्दे में समाज को भीतर से खोखला करने की हुई। इसलिए असली मुद्दा यह है कि इस देश के सभी राजनीतिक दल केवल चिल्लड़ गांव के दोषियों को सजा दिलाने की मुहिम न छेड़ें बल्कि उस मानसिकता से बाहर आयें जो ऐसे कृत्य कराती है। बेशक इसमें सबसे बड़ी जि6मेदारी कांग्रेस पार्टी की है 1योंकि उसी ने इस देश में शासन प्रायोजित आतंक की शुरूआत की है। अब मुझे प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह बताएं कि इस देश में न1सलवाद से भी बड़ी समस्या 1या ऐसी राजनीतिक मानसिकता की नहीं है? यह तो दुगना धोखा और आतंकवाद है 1योंकि स्वयं स8ाा में बैठे व्यक्ति ही लोगों को आपस में एक-दूसरे के खून का प्यासा बनाते हैं और शासन आंखें बन्द करके सब कुछ देखता है। चिल्लर गांव की यही आत्मकथा है मगर इस मुल्क के लोग 1या करें जिनकी किस्मत में ऐसे रहनुमा लिख दिये गये हैं जो रहबरी करके ही हुक्काम बने।
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