

मुंबई वहां गम अभी तारी है और उदासी काबिज..और यहां मानो कुछ हुआ ही ही नहीं। एक है नरीमन हाउस और दूसरा लिओपोल्ड कैफे। आतंकी हमले के दो शिकार एक-दूसरे से बस कुछ कदमों की दूरी पर हैं। मगर कोलाबा के इन दोनों स्थानों के अतीत में असंगति है और वर्तमान में भी। कैफे को सब जानते हैं और छबाद हाउस को अभी भी तलाशना पड़ता है। यहूदियों के पूजा केंद्र छबाद हाउस यानी नरीमन हाउस में कोई साधक भूले-भटके पहुंच जाता है, मगर रूकता कोई नहीं और इधर लिओपोल्ड कैफे में कुर्सी पाने के लिए आपको इंतजार करना पड़ता है। एक गमजदा पूजागृह : सदा से शांत नरीमन हाउस अब और उदास व बोझिल है। मानो वह अपने दर्द के साथ जीना चाहता हो। सामने की दीवार पर गोलियों के निशान जस के तस हैं। गोलीबारी और राकेट लांचर के हमले में टूटी दीवार अभी नहीं है। बताते हैं कि अंदर खून के निशान भी जस के तस हैं। रब्बी गैब्रियल होल्तबर्ग की यादें अंदर बिखरी हैं और अब इस भवन में कोई नहीं ठहरता। गेट पर मौजूद गार्ड बताते हैं कि पूजा करने वाले लोग कभी कभार आते हैं। कोलाबा के लोगों को बहुत बाद में पता चला कि इस भवन में यहूदी पूजा करते हैं। उस गली और उस भवन को देख कर यह नहीं अहसास हो पाता है कि आतंकियों के पास यहूदियों के इस पूजास्थल की कितनी ठोस सूचना थी और क्यों इमरान और नासिर नाम के दो आतंकियों ने सबसे लंबे वक्त तक यहां मोर्चा लिया। कमांडो अगर छत से न उतरते तो एक गाड़ी का भी नरीमन हाउस तक पहुंचना मुश्किल है। नरीमन हाउस कितना बड़ा मोर्चा था, इसका एक छोटा सा सबूत पतली सी गली में नरीमन हाउस के ठीक सामने की दीवार है, जिस पर आतंकियों की एके 47 के दर्जनों हस्ताक्षर हैं। ऊपर लाल रंग से लिखा है, हम 26/11 के हमले की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं। नरीमन हाउस के रब्बी इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते हैं। और एक मस्त कैफे : लिओपोल्ड कैफे का क्या कहना? हमले के बाद तो यह पर्यटन केंद्र बन गया है। हमला खत्म होने के अगले ही दिन यहां काम शुरू हो गया था। कोलाबा पुलिस स्टेशन के ठीक सामने बना लिओपोल्ड कैफे 1871 से चल रहा है। यह आतंकी हमले का पहला निशाना था। यहां गोलियां चला कर करीब एक दर्जन लोगों को मारते हुए आतंकी बगल की गली होते हुए पिछले गेट से ताज में घुस गए। भारत आने वाले विदेशी, खास तौर से यूरोपीय नागरिकों की यह पसंदीदा जगह है। बुधवार की शाम को पहले शिव सैनिकों ने यहां हल्ला गुल्ला किया था, लेकिन हमें कोई फिक्रमंद नहीं दिखता। पुलिस जरूर जमा है लेकिन लिओपोल्ड के कद्रदान कुर्सी के इंतजार में फुटपाथ पर खड़े हैं। कैफे के अंदर तो पैर रखने की जगह भी नहीं है। ग्राहकों में 80 फीसदी विदेशी, जो बियर और काफी की चुस्कियां ले रहे हैं। फिर भी निगाहें छत की तरफ उठ जाती हैं जहां गोलियों के निशान बने हैं। हमले के बाद लिओपोल्ड को कुछ ज्यादा ही ग्राहक मिलने लगे हैं। गोलियों के निशान वाले कैफे के कप खूब बिकते हैं।
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