
उस नदी के तट जो गुरबत में जी रहे वनवासियों के लिए सोना उगलती है। अभी नदी में पानी कम है। घुटने तक। बेतिया जिला मुख्यालय से सौ किमी दूर स्थित इस नदी में कुछ लोग मेड़ बना रहे हैं, कुछ बालू और कंक्रीट से सोना निकाल रहे हैं। सुनकर आश्चर्य हो रहा है, लेकिन बात है बिल्कुल सच। मेरे सामने खैरहनी दोन के परदेशी महतो, जीतन महतो, महेंद्र महतो, विशुन महतो और जमवंती देवी समेत कई लोग काठ के डोंगा, ठठरा, पाटा और पाटी के साथ नदी की धार से सोना निकाल रहे हैं। इसी बीच, परदेशी महतो जंगली पेड़ जिगरा की छाल के लेप से लबालब सतसाल की लकड़ी पर कुछ बालू और सोना लिए पहुंचे। साहब देखिए यह सोना है, यह है बालू। निकालने की तरकीब? पूछने पर बताते हैं-पहले नदी में मेड़ बांधते हैं, फिर डोगा लगाते हैं, तब उस पर ठठरा रखते हैं। पत्थर ठठरे के ऊपर, बालू डोगा के अंदर। फिर बालू की धुलाई। तब बालू सतसाल की काली लकड़ी पर, फिर धुलाई, तब जाकर दिनभर में निकलता है एक से दो रत्ती सोना। इतने पर बात खत्म नहीं होती। इसके आगे जानिए। सतसाल की पटरी से सोने के कण को उठाकर जंगली कोच के पत्ता पर सोहागा के साथ रखते हैं। आग में तपाते हैं, तब जाकर बिक्री लायक होता है यह सोना। दिनभर की कमाई एक से दो रत्ती सोना। यानी बिचौलिए खरीदारों से मिलने वाले दो या ढाई सौ रुपये। वनवासियों के मुताबिक गांव में ही सेठ साहूकार आकर इन्हें खरीद लेते हैं। दर पूछने पर बताते हैं, ये लोग जो देते हैं, उतने में ही बेच देते हैं। मालूम हो कि हिमालय की तलहटी से निकली यह नदी नेपाल की पहाडि़यों से होकर वाल्मीकिनगर में सोनाहां व हरनाटांड़ से लेकर रामनगर प्रखंड के दोन इलाकों में कहीं पचनद तो कहीं हरहा के नाम से जानी जाती है। नदी में मिलने वाले सोने के कण को गर्दी दोन, खैरहनी,कमरछिनवा दोन, पिपरहवा, मजुराहा व वाल्मीकिनगर के अलावा कई सीमावर्ती गांवों के लोगों के लिए कुछ माह तक रोजगार देते हैं।
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