नई दिल्ली, अब इस सच्चाई को सरकार ने कबूल कर लिया है कि सरकारी डॉक्टर भी लोगों को बेवजह महंगी दवा लिख रहे हैं। कई मामलों में तो ये बिना जरूरत के एक की जगह चार दवाएं लिख देते हैं। नतीजा ये है कि आम जनता की न सिर्फ जेब कट रही है, बल्कि सेहत का भी नुकसान हो रहा है। देश भर में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से ले कर अस्पतालों तक में काम कर रहे डॉक्टरों के बारे में यह सच्चाई सामने आई है खुद केंद्र सरकार की ओर से की गई समीक्षा में। देश भर में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के ढांचे को मजबूत करने के इरादे से चलाए जा रहे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की तीसरी साझा समीक्षा (कॉमन रिव्यू मिशन) के दौरान राज्यों के प्रयासों की खासी तारीफ की गई है। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के स्वतंत्र पर्यवेक्षकों की साझेदारी में की गई इस समीक्षा में कई बड़ी खामियां भी सामने आई हैं। इस साझा समीक्षा ने पाया गया है कि महंगी और गैर-जरूरी दवा लिखने के मामले में सरकारी डॉक्टर भी प्राइवेट डॉक्टरों की राह पर चल रहे हैं। ज्यादातर जगहों पर देखने को मिला कि डॉक्टर सस्ती जेनेरिक दवा की जगह महंगे ब्रांड वाली दवाएं लिख रहे हैं। इतना ही नहीं, महंगी दवा लिखने के साथ ही ये अक्सर अतार्किक रूप से ज्यादा दवाएं भी लिख देते हैं। समीक्षा में कहा गया है कि कम से कम सरकारी ढांचे में काम करने वाले डॉक्टरों को तो अनिवार्य-दवा की अवधारणा को समझना चाहिए और इसी आधार पर काम करना चाहिए। डॉक्टरों में अगर यह समझ पैदा की जाए तो न सिर्फ आम लोगों का खर्च कम होगा, बल्कि पूरी व्यवस्था पर बोझ भी घटेगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि हालांकि अधिकांश राज्य सरकारों ने इस मामले में पहले से ही दिशा-निर्देश तय किए हुए हैं, लेकिन इस तथ्य के सामने आने के बाद उम्मीद की जा सकती है कि इस पहलू पर और ध्यान दिया जाएगा। हालांकि यह रिपोर्ट बताती है कि देश भर में, खास कर गरीब मरीजों को दवा उपलब्ध करवाने को ले कर ज्यादातर राज्य सरकारें काफी संजीदा हुई हैं। कुछ राज्य सस्ती जेनरिक दवाओं पर जोर दे रहे हैं तो कुछ राज्यों ने अपने अस्पताल और चिकित्सा केंद्रों के अहाते में सस्ते दर पर दवा बेचने का इंतजाम किया है। इसके बावजूद इनमें से ज्यादातर जगहों पर मुफ्त दवा उपलब्ध नहीं हो पा रही। इस वजह से डॉक्टरों को बाहर की दवा लिखने से भी नहीं रोका जा सकता।
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रविवार, 3 जनवरी 2010
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