
मोबाइल की तरंगों व लगातार बढ़ते प्रदूषण में जहां छोटी चिडि़यों की चहचहाहट खोती जा रही है। वहीं वन्य जीव संरक्षण विभाग के लाख दावों के बाद राष्ट्रीय पक्षी मोर, तीतर व बटेर की संख्या लगातार घटती जा रही है। इसके लिए केवल कीटनाशकों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। शिकारियों की कुदृष्टि के कारण भी अब ये पक्षी बाहरी क्षेत्रों के बजाए सिर्फ वनों में ही दिखाई दे रहे हैं। लेकिन वहां भी सुरक्षित नहीं हैं। वहां भी इनकी संख्या लगातार घट रही है। जिले का कलेसर नेशनल पार्क पहले जहां तीतर, बटेर व मोर की आवाज से गूंजा करता था, अब विरले ही इनकी आवाज सुनाई देती है। वन्य जीव संरक्षण विभाग के दावों के बाद भी शिकारी इन पक्षियों का लगातार शिकार कर रहे हैं। कल तक ये पक्षी खेतों व गांवों में भी दिखाई देते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। इसके लिए कीटनाशकों को भी बड़ा कारण माना जा रहा है। पशु-पक्षी प्रेमी तमाम संगठनों की चिंता भी धरातल पर कम व जुबानी जमा खर्च अधिक नजर आती है। पशु पक्षियों पर लगातार जानकारी एकत्रित करने व शोध में जुटे अलाहर स्कूल के विज्ञान शिक्षक दर्शन लाल का कहना है कि पक्षियों की घटती संख्या बेहद चिंता का विषय है उनका मानना है कि बदलते परिदृश्य का असर पक्षियों पर सबसे अधिक पड़ा है। समस्या प्रदूषण की हो या कीटनाशकों की इससे पक्षियों की संख्या लगातार कम हो रही है। सबसे अधिक प्रभाव छोटी (गौरैया) चिडि़या पर पड़ा है, जो गांव के साथ शहरों में भी घरों में देखने को मिलती थीं। घरों के रोशनदान, खिड़कियों में छोटे-छोटे घोंसले बनाने वाली यह चिडि़या लुप्त होने के कगार पर है। थोड़े समय के बाद शायद इसका नाम सुनने तक को न मिले। गुरतल यानी गरसल्ली कहा जाने वाला पक्षी भी अब कम होने लगा है। गिद्ध जैसे बड़े पक्षी की प्रजाति भी खत्म होती जा रही है। जहां तक मोरों का सवाल है तो यह भी अब दूर दराज के वनीय क्षेत्र में ही देखने को मिलते हंै। दर्शनलाल ने बताया कि मोबाइल टावरों व डिश इत्यादि में आने जाने वाली माइक्रोवेव यानी सूक्ष्म तरंगें भी पक्षियों पर बुरा असर डाल रही हैं। हालांकि इस बारे में भी पूरी तरह से सही जानकारी नहीं मिल पाई है,जहां तक जानकारी सामने आई है उसके मुताबिक हवा में उड़ रहे पक्षी इन तरंगों की वजह से दिमागी रूप से अनियंत्रित हो रहे हैं। इसका असर उनकी प्रजनन क्षमता पर पड़ रहा है। इसके अलावा डिक्लोफेनिक सोडियम साल्ट भी एक कारण है, जो पशुओं को दर्द निवारक के रूप में दिया जाता है। पक्षी जब किसी मृत पशु को खाते हैं या फिर किसी भी तरह से यह साल्ट उनके शरीर में पहुंचता है तो यह भी पक्षियों की वंश वृद्धि के लिए घातक होता है। दूसरी ओर वाईल्ड लाइफ के निरीक्षक सतपाल ने बताया कि इस जिले में तो पक्षियों खासतौर पर मोर, तीतर व बटेर की संख्या कम होने या लुप्त होने का कोई सवाल नहीं है। वनीय क्षेत्र व खेतों में आम तौर में इन्हें देखा जा सकता है। प्रदेश के अन्य जिलों की तुलना में इस जिले में इनकी संख्या अधिक है। प्रदूषण नियंत्रण विभाग के क्षेत्रीय अधिकारी डीबी बतरा का कहना है कि प्रदूषण की मात्रा यदि हवा में 500 से 600 माइक्रोग्राम हो जाए तो निश्चित रूप से इसका असर परिंदों पर पड़ता है। हालांकि शहर में यह मात्रा आमतौर पर 250 माइक्रोग्राम तक ही पाई जाती है।
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