नई दिल्ली, दवा कंपनियां सरकारी मूल्य नियंत्रण प्रणाली को ठेंगा दिखाकर हर साल ग्राहकों से लगभग दो सौ करोड़ रुपये झटक रही हैं और पकड़े जाने के बावजूद रकम लौटाने में आनाकानी कर रही हैं। यानी, एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी। यह स्थिति तब है जबकि लगभग 94 फीसदी दवाओं की कीमत पर सरकार का कोई काबू नहीं है। अगर सभी जरूरी दवाओं की कीमत पर नियंत्रण हो जाए तो कंपनियों की मुनाफाखोरी का आंकड़ा कई गुना बढ़ जाएगा। राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) के अध्यक्ष एसएम झारवाल से खास बातचीत में बताते हैं कि विभिन्न दवा कंपनियों को 1998 के बाद से ग्राहकों से दो हजार करोड़ रुपये (यानी, हर साल लगभग दो सौ करोड़ रुपये) की अधिक-वसूली का दोषी पाया गया है। इसके मद्देनजर उन्हें ज्यादा वसूली गई रकम सरकारी खजाने में जमा करने को कहा गया है, लेकिन कंपनियों ने अब तक सिर्फ 180 करोड़ रुपये जमा किए हैं। लगभग 1965 करोड़ रुपये अभी उनसे वसूला जाना बाकी है। सरकार के लिए यह काम आसान नहीं है। गौरतलब है कि साल 1979 में मूल्य नियंत्रण सूची में 342 दवाएं शामिल थीं, लेकिन इसमें अब 74 दवाएं ही शामिल हैं। इसमें 29 दवाएं अब चलन में ही नहीं। यानी यह सूची सिर्फ 45 दवाओं की ही रह गई है। हैरानी की बात तो यह है कि मौजूदा नियमों में जीवनरक्षक दवाओं को परिभाषित ही नहीं किया गया है। यानी जिस दवा के न मिलने से मरीज की जान चली जाती हो, उस पर भी मुनाफाखोरी की कोई सीमा नहीं। इसी तरह जितनी नई दवाएं बाजार में आती हैं, उनकी कीमत पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इस स्थिति को देखते हुए 10 मार्च 2003 को सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को आदेश दे चुका है कि जीवनरक्षक दवाएं जल्द मूल्य नियंत्रण की परिधि में लाई जाएं। इसके बावजूद अब तक ऐसा नहीं हो सका है।
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मंगलवार, 19 जनवरी 2010
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