
शनिवार रात दीवाली पर जब पटाखे छोड़कर वातावरण में ध्वनि और वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया जा रहा था, तब गुजरात के मेहसाणा जिले के एक छोटे से गांव कंसा का आसमान शांत था। वहां पर्यावरण को बचाने के लिए पटाखों का बहिष्कार कर शांत दीवाली मनाई। पटाखों का शोर तो शांत हो गया लेकिन इन गांववासियों के अनूठे कदम की धमक पूरी दुनिया में गूंज उठी। हो सकता है कि देश में कंसा जैसे और कई गांव हों जहां लोग पर्यावरण प्रेमी हो, लेकिन कितने? मान्यता है कि लंका के राजा रावण को युद्ध में हराकर भगवान राम के वापस लौटने पर अयोध्यावासियों ने घी के दीप जलाकर अपनी प्रसन्नता का इजहार किया। तभी से यह परंपरा महापर्व की तरह भारतवर्ष सहित कई देशों में मनाई जा रही है। दीवाली मनाने का तौर-तरीका बदलता रहा और पता नहीं कब पटाखे छोड़ने का चलन शुरू हो गया। जबकि किसी भी ग्रंथ में पटाखे चलाने की बात नहीं लिखी गई है। इसके बावजूद दीवाली पर देश में 20 से 30 अरब के पटाखे धुंआ कर दिए गए। न्यूनतम 20 अरब रुपये भी पटाखों पर खर्च हुए होंगे तो यह इतनी बड़ी रकम है कि इसके सार्थक प्रयोग से सौ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या सौ प्राइमरी पाठशालाएं या दस लाख इंडिया मार्का हैंडपंप लगाए जा सकते थे। जिससे देश की एक बड़ी आबादी को लाभ मिलता। धुएं और शोर में यह रकम उस देश में बर्बाद की जा रही है जहां अब भी एक बड़ा तबका भूखे पेट सोने को मजबूर है। 20 करोड़ से ज्यादा लोग आज भी रोजाना पचास रुपये से कम पर आजीविका चला रहे हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद साक्षरता शत-प्रतिशत नहीं हो पा रही है। बच्चों को शुरूआती कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ जाती है। आम बीमारियों से हर साल लाखों बच्चे मारे जाते हैं। ऐसे में 20 अरब यानी 2000 करोड़ के पटाखे धुंआ कर देना कहीं से भी जायज लगता है। बीस अरब की रकम छोटी मोटी रकम नहीं होती। अगर बीस करोड़ की लागत से ब्लाकवार एक-एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनवाया जाए तो इस रकम से 100 ब्लाकों की जनता अपनी बीमारियों का इलाज करा सकेगी। इस धनराशि से 100 प्राइमरी स्कूल बनवाए जा सकते हैं। अगर प्रति स्कूल के औसत से 500 बच्चे भी अपना भविष्य निर्माण करते तो हमारे मानव संसाधन में हर साल पचास हजार की बढ़ोतरी होती। यही नहीं, देश के कई इलाके ऐसे हैं जहां पीने के पानी के लिए हर दिन लोगों को जिद्दोजहद करनी पड़ती है। इस रकम से दस लाख इंडिया मार्का हैंडपंप लगाए जा सकते हैं जिससे कम से कम इतने ही गांव के लोग अपना गला तर कर सकते हैं। पटाखे छोड़ना पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह है। आज दुनिया का सबसे बड़ा एजेंडा जलवायु परिवर्तन से निपटना है। इस संकट के परिणाम दिखने शुरू हो गए हैं। दिनों दिन इनकी भयावहता बढ़ती जाएगी। लेकिन इस महापर्व के दिन पटाखे फोड़कर हवा और ध्वनि प्रदूषण पैदा करने से कहीं से भी नहीं लगता कि हम अपने उज्ज्वल और स्वच्छ भविष्य के प्रति संजीदा है। हम अपने अपने वाली पीढि़यों के साथ नाइंसाफी तो नहीं कर रहे हैं? क्या भविष्य के लिए यही अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया जा रहा है?
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