नई दिल्ली, एजेंसियां: दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक अभूतपूर्व फैसला सुनाते हुए कहा है कि प्रधान न्यायाधीश का पद सूचना अधिकार कानून के दायरे में आता है और न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि उसे सौंपी गई जिम्मेदारी है। इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि उच्च न्यायालय ने अपनी एकल पीठ की ओर से दो सितंबर 2009 को दिए गए फैसले को कायम रखा। उस फैसले में भी प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार दायरे में बताया गया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को वह फैसला रास नहीं आया और उसने उसके खिलाफ अपील दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिल्ली हाईकोर्ट की ओर से दिए गए ऐतिहासिक फैसले के खिलाफ भी अपील दायर करने की घोषणा की है। यदि ऐसा होता है तो सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर अपने मामले की सुनवाई खुद ही करेगा। दिल्ली उच्च न्यायालय के 88 पन्नों के फैसले को प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के लिए एक निजी आघात के रूप में देखा जा रहा है जो लगातार कहते रहे हैं कि उनका पद पारदर्शिता कानून के तहत नहीं आता और वह इस कानून के तहत न्यायाधीशों की संपत्तियों की घोषणा जैसी सूचना प्रकट नहीं कर सकते। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा के बारे में उच्चतम न्यायालय की ओर से पारित प्रस्ताव न्यायाधीशों पर बाध्यकारी है। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एपी शाह, विक्रमजीत सेन और एस मुरलीधर की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा, इसकी बमुश्किल कल्पना की जा सकती है कि न्यायाधीशों के सम्मेलन में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव न्यायाधीशों पर बाध्यकारी न हो और उसकी अहमियत पर सवाल भी उठाए जाएं। फैसले के अनुसार प्रधान न्यायाधीश एक लोक प्राधिकार हैं और उच्चतर न्यायपालिका को अपनी संपत्ति के ब्यौरे को सार्वजनिक करना चाहिए, क्योंकि वे निचली अदालतों के न्यायिक अधिकारियों से कम जवाबदेह नहीं हैं जो सेवा नियमों के तहत संपत्ति की घोषणा के लिए बाध्य हैं। पीठ ने उच्चतम न्यायालय की यह दलील खारिज कर दी जिसमें इस आधार पर प्रधान न्यायाधीश के पद को आरटीआई कानून के दायरे में लाने का विरोध किया गया था कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण होगा। फैसले के मुताबिक न्यायिक पदक्रम में न्यायाधीश जितने ऊपर हों, उनके संदर्भ में उतने ही बड़े स्तर की जवाबदेही की जरूरत महसूस की जाती है। अदालत ने यह दलील भी खारिज कर दी कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अपनी संपत्ति की घोषणा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। फैसले में यह भी कहा गया है कि सूचना के अधिकार कानून के तहत नागरिकों के जानकारी मांगने के बजाय सार्वजनिक प्राधिकारों को अपनी ओर से सूचना मुहैया कराना जरूरी है। प्रधान न्यायाधीश के पद के आरटीआई कानून के दायरे में होने संबंधी उच्चतम न्यायालय के फैसले में उच्चतम न्यायालय को महज यही राहत मिली है कि नोटिंग, संक्षेप में लिखीं बातें तथा फैसले के मसौदे पारदर्शिता कानून के दायरे में नहीं आते। मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने यह भी कहा कि न्यायपालिका से जुड़ा घोटाला किसी कार्यकारी या विधायिका के किसी सदस्य की संलिप्तता वाले घोटाले के मुकाबले हमेशा से अधिक निंदनीय माना जाता रहा है। उच्चतम न्यायालय को पारदर्शिता में कोताही न बरतने को कहने के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि वह भी अपने न्यायाधीशों की संपत्ति का विवरण जल्द ही सार्वजनिक करेगा। दिल्ली हाईकोर्ट मद्रास और केरल उच्च न्यायालय के बाद देश की ऐसी तीसरी उच्च अदालत होगी जो अपने न्यायाधीशों की संपत्ति का खुलासा करेगी। विधि विशेषज्ञों ने इस फैसले को ऐतिहासिक और युगांतकारी करार देकर इसकी प्रशंसा की है। इसके चलते सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने के पहले नए सिरे से विचार करना पड़ सकता है। उसके सामने नैतिकता का सवाल भी खड़ा हो सकता है क्योंकि सूचना आयोग, दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल पीठ और उसकी पूर्ण पीठ उसकी दलीलों को खारिज कर चुका है।
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बुधवार, 13 जनवरी 2010
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